Wednesday, July 3, 2019

मेरे आलाप

    जब भी सूनी राह में मुड़कर देखा

विकल दृष्टि ने तुम्हें ही पाया

इसको मन का भ्रम कहूँ झूठा या

अंश स्वयं के पदचापों की प्रतिध्वनि का

अधिकांश निरुत्तर ही रहती हूँ

बस खोयी हुई चलती रहती हूँ

कभी आगे-कभी पीछे देखते हुए

तुम्हारे ही अनुभव का भाव लिये।

भाग्य नहीं दयालु इतना मेरा

कि तुम्हें मुझे वह दे दे पूरा

अंशों में जीती हूँ किन्तु यह बंधन,

तुम्हारे आभास का एक पूरा जीवन।

इसी में पीड़ा लेकर मुस्काना,

अर्धचेतन सा तुम्हें रटते जाना।

कुछ सीमाओं की घनघोर विवशता,

और कुछ अपनी ही अनिश्चतता।

सम्भवतः विवशता कभी तो टूटेगी,

पल-पल की अनिश्चतता छूटेगी।

तब तुम पूर्ण मेरे ही होओगे,

जब मेरे आलापों में खोओगे।



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मेरे हाइकु