Tuesday, July 2, 2019

मैं हूँ सरस होंठों की छुवन

डॉ. कविता भट्ट  

 नग्न तरुवर मैं  हूँ नहीं
शरद में ठिठुरता विकल
जिजीविषा हूँ कोंपलों की-
मैं वसंत की प्रतीक्षा प्रबल ।
 अश्रु लेकर कल खड़ा था
पीत-पतझर की राह में  
सहलाएगा गर्म सूरज
 अब भरके अपनी बाँह में ।
 बर्फ अवसादों की थी जो,
अब हँसी से गल जाएगी
 ऊषा  अब उन्मुक्त है;
 शीत-निशा  ढल जाएगी ।
 किरणें कोमल पीठ पर जब
अपनी उँगलियाँ फेरेंगी
गुदगुदाती लिपट लूँगी
जब  तीखी हवाएँ  हेरेंगी ।
 मुक्त हूँ- जड़ बंधनों से
मैं हूँ सरस  होंठों की छुवन  
दिव्य-प्रेम पथ की नर्तकी हूँ
 थिरक-थिरक करती हूँ नर्तन।
 बाँधकर आशा के घुँघरू  
      मदमस्त अब जो पग धरे
गुंजित होंगे पर्वत-शिखर
      गाएँगे प्रेम-तरु  हरे-भरे।
 -0-



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