Wednesday, July 3, 2019

डॉ.कविता भट्ट की ये बहुआयामी कविताएँ

काव्य ऐसा सृर्जन है जो लिखा नहीं जाता ,रचा जाता है। किसी के सृजनात्मक कार्य पर तब तक लिखना न्याय संगत नहीं, जब तक उस भावभूमि पर उतरकर अवगाहन न किया जाए। सितम्बर 1914 में डॉ कविता भट्ट जी की कविताएँ पढ़ने पर मुझे जैसा महसूस हुआ, वह किसी व्यक्ति से मिलने और पढ़ने जैसा ही था। एक बात मैं कई बार महसूस कर चुका हूँ कि अच्छा और ईमानदार रचनाकार अपनी रचना में बोलता है। जितना मैं समझ सका , वह आपके सामने प्रस्तुत है , जो उनकी पुस्तक 'मन के कागज़' की भूमिका के रूप में आया। [रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु']

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डॉ.कविता भट्ट की ये बहुआयामी कविताएँ

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


काव्य की यात्रा एक नदी जी तरह होती है , अपने उद्गम की क्षीण धारा से लेकर निरन्तर प्रवाह की ओर अग्रसर । कवि के अनुभवों के ताप से कभी कुछ पिघलता है , धार बनता है । धारा बनने वाली वह संवेदना मन की गहन भावधारा को साथ लेकर पथ में आए हर पहाड़ –घाटी , पथ की

व्यथा-कथा पूछती , उस व्यथा से पिघलती , द्रवीभूत होती अग्रसर होती है । कभी लगता है उसके मन की व्यथा भी कुछ कम नहीं। उसकी खुशियों के पल भी उससे रूठकर कहीं दूर चले गए हैं। पता नहीं कभी लौटेंगे या नहीं। दूसरे ही क्षण उसे साधारण और किसी वंचित एकाकी व्यक्ति का दु:ख सालने लगता है।

पेट की आग सबसे बड़ी आग है। दो जून की रोटी कमाने के लिए  बहुतों का घर-बार छूटता है , सगे –सम्बन्धी छूटते हैं, बूढ़े माता  तिल-तिलकर एकाकीपन की आग में झुलसते जाते हैं। डॉ० कविता भट्ट की कविताओं में यह सब मिलेगा-व्यष्टि से समष्टि तक की भाव-कल्पना और चिन्तन की यात्रा ।

इनकी कविता 'बूढ़ा पहाड़ी घर'केवल घर ही नहीं है , बल्कि घर छोड़कर जाने वालों की एक-एक गतिविधि का साक्षी रहा है। उसकी पुकार किसी दीवारों वाले मकान की पुकार नहीं है। यह उस घर की पुकार है, जिसके साथ उसमें रहने वाले हर व्यक्ति की मुस्कान और पीड़ा का बसेरा रहा है । यह घर उन सब क्षणों का साक्षी रहा है। वह घर कंक्रीट-अरण्यों ( शहर) में जाकर बसने वालों को कहता है-

तुम्हारे पिता को मैं अतिशय था प्यारा,

उन्होंने उम्र भर मेरी छत-आँगन को सँवारा।

चार पत्थर चिने थे, लगा मिट्टी और कंकर,

लीपा था मेरी चार दीवारों पर मिट्टी-गोबर।

उन्होंने तराशे थे जो चैखट और लकड़ी के दर,

लगी उनमें दीमक हुए जीर्ण-शीर्ण और जर्जर।

तुम्हें बुला रहा, मैं, तुम्हारा, बूढ़ा पहाड़ी घर,

पहाड़ी घर के सामने एक समस्या है, जिसका दूर-दूर तक कोई समाधान नहीं है। वह शहरों की ओर हो रहे इस पलायन को कैसे रोके ?आजीविका के कारण न चाहकर भी घर छोड़ना पड़ता है

अभी भी मैं हर घड़ी-पल यही सोचता हूँ,

अभी भी मैं रोता हूँ और समय को कोसता हूँ।

क्या अब मैं मात्र भूखापन ही परोस सकता हूँ?

या वह रोटी का टुकड़ा तुम्हे मैं पुनः दे सकता हूँ?

बूढ़े पहाड़ी घर की एक उत्कट इच्छा है, जिसके लिए वह तरसकर रह जाता है-

और तुम मुझको देना वही बचपन का आभास भर।

अपनी संतानों के बचपन में जाना ढल,

और दे देना मुझे बचपन का वह प्रेम निश्छल।

निरन्तर पर्यावरण के विनाश के पाप ने हमारे सन्ताप को बढ़ा दिया है । इसका कारण है प्रकृति का क्रूरतापूर्वक दोहन । हमारी लोभवृत्ति का दुष्परिणाम हमारे सामने है-वृक्षों के क़त्ले आम के रूप में। कविता ने 'कितने दिन बच पाएगा?' में लाचार बूढे़ वृक्ष की मर्मान्तक पीड़ा को इस प्रकार चित्रित किया है-

जला डाले हमारे संग कुछ घोंसले,

और कुछ चहकते मचलते घरौंदे।

फिर रहे-अब वे पशु बिदकते,

भय से- लाचार और सिहरते।

पर्यावरण के विनाश की गूँ ज 'जटिल प्रश्न पर्वतवासी का'और 'जलते प्रश्न'कविताओं  में  उभरकर आई है। अति दोहन के कारण उत्तराखण्ड में आई आपदा का कटु सत्य विश्लेषित किया गया है। अन्धी आस्था प्राकृतिक कोप को शान्त नहीं कर सकती-

पुष्प-मालाओं के ढोंगी अभिनन्दन,

असीम अभिलाषाओं के झूठे चन्दन।

न मुग्ध कर सके शिव-शक्ति को,

तरंगिणी बहाती आडंबर-भक्ति को।

जलते प्रश्न में कठोर शब्दों में भर्त्सना करते हुए कविता भट्ट कहती हैं-

कितनी भूख-कितनी प्यास है,

जो कभी भी मिटती ही नहीं।

कितनी छल-कपट की दीवारें,

जो आपदाओं से भी ढहती नहीं।

सरकारी –तन्त्र नितान्त संवेदना-शून्य है। वह आपदा से भी कुछ नहीं सीखता । उसका कर्त्तव्य  केवल कागजी काम तक सीमित है-

पेट अपना और कागजों का भरने वाले,

कहते काम हमने सब कुछ कर डाले।

सत्ता पाकर लोग उस आम आदमी को भूल जाते हैं, जिसके कन्धों पर सवार होकर वे सता का सिंहासन प्राप्त करते हैं।'एक रिक्शावाला 'जो भोर की करवट से ही जग जाता है , पाँच रुपये में भोजन की थाली तो नहीं पा सका; कोहरे की चादर का क़फ़न ओढ़कर लेट गया ।

'द्रौपदी बना लोकतन्त्र'में सत्ता की क्रूरता के प्रति कवयित्री का आक्रोश इस प्रकार प्रकट होता है –

सिंहासन की बीमारी हो चुकी।

क्या कोई कृष्ण अवतरित होगा,

चीरहरण की तैयारी हो चुकी।

यह चीरहरण है भोलीभाली जनता का ,उसके लोकतान्त्रिक विश्वास का ।

'वो धोती-पगड़ी वाला'में दो निवालों के लिए रात-दिन पसीना बहाने वाले मज़दूर की व्यथा-कथा है । सुख से अघाए नियन्ता उसकी पीड़ा नहीं समझ सकते-

वातानुकूलन में मदभरे प्यालों को  पीने वाले

मोल मेरे श्रम का क्या जानो,

तुम महलों में जीने वाले।

'दूर पहाड़ी गाँव में'मौन की चीख को सुना है । असहाय बूढ़े , जिनका कोई सहारा नहीं , सन्नाटा और काट खाने वाला एकान्त ही उनके होने की गवाही देता है ।जवानी तो बसों में लदकर शहर चली गई । सहानुभूति के दो बोल बोलने वाला कोई पास है ही नहीं। यह हालत आज हर गाँव की होती जा रही है-

दूर पहाड़ी गाँव में जब साँझ ढलती है।

नौनिहाल हंसी बीते दिनों की बातें,

बूढ़े तन, पूस, करवट बदलती रातें।

बस मुठ्ठी भर राख है बुझे चूल्हे में,

तन में थमती हुई चन्द लम्बी साँसें।

झेंपती-एक धीमी चिंगारी धुआँ उगलती है,

'भूखा शिशु हिमाला'और 'पसीना काले रंग का'कविता भी उस लघु मानव की पीड़ा,असमर्थता की साक्षी हैं जो सब अभावों का पर्याय बन गया है ।

यह युवा कवयित्री अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति पूर्णतया जागरूक है। वह हर पीड़ित वंचित , शोषित के साथ खड़ी नज़र आती है । कवि का अपना भी संसार होता है। अभाव की दुखती रग होती है । अप्राप्य को पाने की छटपटाहाट होती है। जो छूट गया उसे पकड़ पाने की आशा बनी रहती है। प्रिय को अपने पास महसूस करना कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि जीवन का सौन्दर्य है । प्रिय के पास होने पर अभाव –भरे दिन भी वासन्ती हो जाते हैं।'प्रिय! यदि तुम पास होते!' कविता में वही अनुराग खिलने की कल्पना अनुस्यूत है-

पतझड़ भी सुवासित मधुमास होते,

प्रिय! यदि तुम पास होते!

झर-झर प्रेम बरखा बरसती,

बूँद-बूँद न कोंपलें तरसती,

कुछ तितलियाँ-चन्द भ्रमर,

रंग-स्वर लहरियों के सहवास होते

'प्यासा पथिक'में यही प्रतीक्षा सिसकियों में बदलने को विवश होती है-

मीलों के पत्थर गिनते हुए बीते पहर,

आँखें अब तक भी सोई नहीं।

एक भी धड़कन ऐसी नहीं जो,

स्मृतियों में तेरी कभी खोई नहीं ।

पल-पल गूंथ रही सिसकियाँ आँखें,

परन्तु पलकें मैंने अभी भिगोई नहीं।

जीवन की कहानी कटु होती गई,

'मन के रंगीन कागज पर'में एक दर्द छिपा है-

उठ कर चले गये साथी।

अब क्या चाह बहारों की?

'तुम और मैं'में प्रेम की प्रगाढ़ता लिये प्यासा पथिक है तो दूसरी ओर सुरभित स्वप्नों की शृंखला लिये निर्जन नीलांचल की नदी की आत्मीयता मर्मस्पर्शी है-

निर्जन नीलांचल की नदी मैं

तुम प्यासे पथिक प्रेम प्रगाढ़ लिये।

मैं सुरभित स्वप्नों की स्वर्ण शृंखला

तुम प्रहर प्रशान्त पुण्य प्रकाश लिये।

'नीरवता के स्पंदन' में कवयित्री ने बीते हुए मधुर क्षणों को समेटने का प्रयास किया है-

साँझ के आकाश पर कुछ बादल विभा के घनेरे -से,

स्मृतियों में प्रणय-क्षण कुछ उस साथी के- मेरे-से।

प्रिय का पास होना सब सुखों का संसार है । साथ-साथ बिताए वे पल स्मृतियों में सुगन्ध भरते रहते हैं । कविता भट्ट की 'प्रिय जब तुम पास थे!'की ये पंक्तियाँ माधुर्य-भाव से सिंचित हैं-

प्रिय जब तुम पास थे।

उष्ण अधर स्पर्श को व्याकुल,

किन्तु नैनों में कुछ संकोच-चपल!

वे पल बीत गए और एक प्रश्न अपने पीछे छोड़ गए-

क्या होगा क्या पुनर्मिलन

अब नित्यप्रति है यही प्रश्न

'मेरे टूटे मकान में'की कविता गाँव की सोंधी खुशबू को समेटे है। मकान भले ही टूटा हो ,पर मन में अजस्र प्रेम का सोता बहता है।सुख-सुविधाएँ कम भले हों ;लेकिन चैन की नींद है। भी भी प्रिय के आने की आशा है-

क्या मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे,

जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे।

चाहकर भी उनको भुलाया न जा सका। उनकी यादें आज भी रह-रहकर रुला जाती हैं।

मैंने सोचा अब मैंने उनको भुला दिया,

पर उसकी यादों ने मुझको रुला दिया।

अब सोचती हूँ यही रह-रह कर कि क्या?

मेरे टूटे मकान में वो फिर से आएँगे?

'अंतिम कामना'में उस प्रिय की स्मृतियाँ घनीभूत हो उठीं, जिन्होंने रास्ते के कंकर चुन डाले । उनके लिए यह कामना कितनी पावन कितनी निष्पाप है !

अंतिम संध्या जीवन की जब होवे,

और शेष नहीं होगा कोई भी प्रहर।

अंतस में पवित्र कामना ये ही रहेगी-

संग तुम्हारा, स्पर्श तुम्हारा अधर पर !

'मेरे आलाप' का एकनिष्ठ प्रेम बहुत कुछ कह जाता है। हर व्यक्ति की कुछ सीमाएँ होती हैं ; जो उसे बाँध देती हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि उसने अपने प्रिय की उपेक्षा कर दी है।आशा का दामन थामे इस तरह की बात कोई पावन मन वाला ही कह सकता है-

सम्भवतः विवशता कभी तो टूटेगी,

पल-पल की अनिश्चतता छूटेगी।

तब तुम पूर्ण मेरे ही होओगे,

जब मेरे आलापों में खोओगे।

'तुम्हारी प्रतीक्षा में' जहाँ खुशियाँ खोखली हों और उनींदी आँखें 'रुदाली हो जाएँ',तो किसका दिल नहीं भीग उठेगा ! कवयित्री की यह आकांक्षा हर सहृदय पाठक को छू जाएगी-

अब तो चले आओं ,ताकि साँसों में गर्मी रहे

मेरे होंठों पर मदभरी लालिमा की नर्मी रहे

चाहो तो दे दो चन्द उष्ण पलों का आलिंगन

बर्फीली पहाड़ी हवाओं से सिहरता तन-मन

जीवन है ,तो सुख-दु:ख आते जाते रहेंगे ।'इस आशा में'कविता में सन्देश निहित है कि आशा और विश्वास सदा परछाई की तरह साथ रहेंगे ।

हर बार तुषारापात हुआ नयी पंखुडि़यों पर

फिर भी डाली है कि माली को निहारे जाती है।

आज होगा नहीं तो कल होगा,

कविता के फटे आँचल में भी मखमल होगा,

डॉ कविता भट्ट की ये बहुआयामी कविताएँ  सहृदय पाठक गुनगुनाए के लिए विवश हो उठेंगे ।मेरा पूर्ण विश्वास है कि डॉ ०कविता भट्ट की काव्य यात्रा उत्तरोत्तर अग्रसर होती जाएगी । कोटिश शुभकामनाएँ !

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

26 सितम्बर , 2014

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डॉ०कविता भट्ट के काव्यसे सम्बन्धितइस लेख को इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है-



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